मेरे सपनों की मनीषा प्रेरित करती,
सुंदर रचना करने को।
दिग्भ्रमित हो रहे कोटि युवक,
उनको रह दिखाने को॥
मेरे अरमानों की मनीषा आती है,
मुझको रह दिखाने को।
टूट रही है मेरी श्रंखला ,
उसकी कड़ी मिलाने को।।
मेरी बिछड़ी मनीषा मिलती है,
मिलकर नव-सृष्टि रचने को।
पुलकित होता मन बावरा,
साथ मिलेगा कुछ करने को॥
स्वप्न - सुंदरी मेरी मनीषा,
नजरे नहीं मिलाती है।
अस्फुट का होठ लरजते,
बात नहीं कह पाती है॥
मुक्ति केशी मेरी मनीषा,
कुछ खोयी - खोयी रहती है।
कुछ अभीष्ट है जीवन में,
जो पाने को करती है॥
......... अविरल..... 'मन की मनीषा' कवी - राम बरन यादव
प्रकाशक - रंग प्रकाशन, ३३ बक्षी गली, राजवाडा, इंदौर म.प्र । इंडिया ९१-७३१-२५३८७८७, 4068787
Sunday, May 30, 2010
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